
4 Aug 2023
शिवपुराण का आधे से अधिक भाग रुद्रसंहिता, शतरुद्रसंहिता और कोटिरुद्रसंहिता आदि नामों से भगवान रुद्र की ही महिमा का गान करता है
भगवान शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है । दु:ख का नाश करने तथा संहार के समय क्रूर रूप धारण करके शत्रु का नाश करने के लिए शिव को ‘रुद्र’ कहते हैं । वेदों में शिव के अनेक नामों में रुद्र नाम ही विशेष है । उन्हें ‘रुद्र: परमेश्वर:, जगत्स्रष्टा रुद्र:’ आदि कहकर परमात्मा माना गया है।
यजुर्वेद का रुद्राध्याय भगवान रुद्र को समर्पित है । उपनिषद् रुद्र को विश्व का अधिपति तथा महेश्वर बताते हैं—
‘इन ब्रह्माण्ड में स्थित भुवनों पर ब्रह्मारूप से शासन करता हुआ और उत्पन्न होने वाले प्रत्येक शरीर के मध्य में चेतनरूप से विराजमान तथा प्रलय के समय क्रोध में भरकर संहार करता हुआ एक रुद्र ही अपनी शक्ति उमा के साथ स्थित है, इससे पृथक् दूसरा कुछ भी नहीं ।’ (श्वेताश्वतरोपनिषद् ४।१८)
रुद्रसंहिता (सृ. ख. २।४०) में कहा गया है—‘इस लोक में शिव की जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है । समस्त विश्व उन्हीं की इच्छा के अधीन है और उन्हीं की वाणी रूपी तन्त्री से बंधा हुआ है ।’
ग्यारह रुद्र या एकादश रुद्र?????
भगवान रुद्र तो एक ही हैं किन्तु जगत के कल्याण के लिए वे अनेक नाम व रूपों में अवतरित होते हैं । मुख्य रूप से ग्यारह रुद्र हैं । इन्हें ‘एकादश रुद्र’ भी कहते हैं । शिवपुराण (शतरुद्रसंहिता १८।२७) में कहा गया है—
एकादशैते रुद्रास्तु सुरभीतनया: स्मृता:।
देवकार्यार्थमुत्पन्नाश्शिवरूपास्सुखास्पदम्।।
अर्थात्—
ये एकादश रुद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं । ये सुख के निवासस्थान हैं तथा देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए शिवरूप से उत्पन्न हुए हैं।
भगवान शिव ने ग्यारह रुद्ररूप में अवतार क्यों लिया ?
एक बार इन्द्र आदि देवता दैत्यों से पराजित हो गए और भयभीत होकर अपनी अमरावतीपुरी को छोड़कर अपने पिता महर्षि कश्यप के आश्रम में आ गए । सभी देवताओं ने कश्यपजी को अपना कष्ट सुनाया । शिवभक्त महर्षि कश्यप देवताओं को कष्ट दूर करने का आश्वासन देकर काशीपुरी आ गए और वहां शिवलिंग की स्थापना करके तप करने लगे।
बहुत समय बीत जाने पर परम दयालु भगवान शिव प्रकट हो गए और उनसे वर मांगने के लिए कहा । कश्यपजी ने कहा—‘दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है, इसलिए आप मेरे पुत्र रूप में प्रकट होकर देवताओं के कष्टों को दूर कीजिए।’
भगवान शंकर ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्ध्यान हो गए। आश्रम वापस आकर उन्होंने देवताओं को भगवान शंकर के अवतार लेने की बात सुनाई, तो सभी देवता प्रसन्न हो गए।
कश्यप-पत्नी सुरभी के गर्भ से लिया भगवान शिव ने ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार!!!!!!!
भगवान शिव ने अपना वचन सत्य करने के लिए कश्यप ऋषि की पत्नी सुरभी के गर्भ से ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार लिया। उस समय देवताओं ने बड़ा उत्सव किया। भगवान के इन रुद्रावतारों से सारा जगत शिवमय हो गया। ये एकादश रुद्र बहुत ही बली और पराक्रमी थे। इन्होंने युद्ध में दैत्यों को हराकर इन्द्र को पुन: स्वर्ग का राज्य दिला दिया। सभी देवता निर्भय होकर अपना-अपना राजकार्य संभालने लगे।
आज भी भगवान शिव के स्वरूप ये सभी एकादश रुद्र देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में विराजमान हैं और ईशानपुरी में निवास करते हैं। उनके अनुचर करोड़ों रुद्र कहे गये हैं, जो तीनों लोकों में चारों ओर स्थित हैं।
एकादश रुद्र के नाम!!!!!!!!!
विभिन्न पुराणों व ग्रन्थों में एकादश रुद्रों के नाम में अंतर मिलता है । जैसे—शिवपुराण में इनके नाम हैं—
कपाली,पिंगल,भीम,विरुपाक्ष,विलोहित, शास्ता,अजपाद,अहिर्बुध्न्य,शम्भु,चण्ड, और भव।
शैवागम के अनुसार एकादश रुद्रों के नाम हैं—
शम्भु,पिनाकी,गिरीश,स्थाणु,भर्ग,सदाशिव,
शिव,हर,शर्व,कपाली, और भव ।
श्रीमद्भागवत (३।१२।१२) में एकादश रुद्रों के नाम इस प्रकार हैं : --मन्यु,मनु,महिनस,महान्,शिव,ऋतध्वज,उग्ररेता,भव,काल,वामदेव, और धृतव्रत ।
ग्यारह रुद्रों की कथा पढ़ने का माहात्म्य
इस प्रसंग को एकाग्रचित्त होकर पढ़ने का शिवपुराण में महान फल बताया गया है ।
यह— धन व यश देने वाला,मनुष्य की आयु की वृद्धि करने वाला,सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला,पापों का नाशक, व समस्त सुख-भोग प्रदान कर अंत में मुक्ति देने वाला है ।
आध्यात्मिक रुद्र!!!!!!!!
उपनिषदों में एकादश प्राणों (दस इन्द्रियां और मन) को ‘एकादश रुद्र’ कहा गया है । परन्तु ये ‘आध्यात्मिक रुद्र’ हैं । ये शरीर रूपी मशीन को चलाते रहते हैं । ये ठीक-ठीक चलें तो मनुष्य का सब शिव (कल्याण) है अन्यथा एक की भी गति बिगड़ी तो शरीर बेकार हो जाता है । जो इन एकादश प्राणों को संयमित आहार-विहार और योगाभ्यास द्वारा वश में रखता है, वही सुख पाता है । ये निकलने पर प्राणियों को रुलाते हैं, इसलिए ‘रुद्र’ कहे जाते हैं। अत: दस इन्द्रियां और मन ही एकादश रुद्र हैं।
भगवान रुद्र के अश्रुबिन्दुओं से उत्पन्न रुद्राक्ष सभी देवताओं को अत्यन्त प्रिय हैं।
गोस्वामी तुलसीदास कृत रुद्राष्टक
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥
भावार्थ:-हे मोक्षस्वरूप, विभु, व्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात् मायादिरहित), (मायिक) गुणों से रहित, भेदरहित, इच्छारहित, चेतन आकाश रूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (अथवा आकाश को भी आच्छादित करने वाले) आपको मैं भजता हूँ॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥
भावार्थ:-निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥
भावार्थ:-जो हिमाचल के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुंदर नदी गंगाजी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
भावार्थ:-जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकण्ठ और दयालु हैं, सिंह चर्म का वस्त्र धारण किए और मुण्डमाला पहने हैं, उन सबके प्यारे और सबके नाथ (कल्याण करने वाले) श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं॥
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥
भावार्थ:-प्रचण्ड (रुद्ररूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मे, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकरजी को मैं भजता हूँ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी। सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी॥
चिदानंद संदोह मोहापहारी। प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी॥
भावार्थ:-कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानंदघन, मोह को हरने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभो! प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥
न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥
भावार्थ:-जब तक पार्वती के पति आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इहलोक और परलोक में सुख-शांति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले हे प्रभो! प्रसन्न होइए॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं॥
जरा जन्म दुःखोद्य तातप्यमानं॥ प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो॥
भावार्थ:-मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और न पूजा ही। हे शम्भो! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे प्रभो! बुढ़ापा तथा जन्म (मृत्यु) के दुःख समूहों से जलते हुए मुझ दुःखी की दुःख से रक्षा कीजिए। हे ईश्वर! हे शम्भो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥
भावार्थ:-भगवान् रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकरजी की तुष्टि (प्रसन्नता) के लिए ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, उन पर भगवान् शम्भु प्रसन्न होते हैं॥
पंडित सतीश नागर उज्जैन