
14 Sept 2022
महाभारत के अनुशासन पर्व में भी भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई ऐसी बातें बताई हैं, जो वर्तमान समय में बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत में ये भी बताया गया है कि
श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और फिर कैसे ये धीरे-धीरे जनमानस तक पहुंची। आज हम आपको श्राद्ध से संबंधित कुछ ऐसी ही रोचक बातें बता रहे हैं-
निमि ने शुरू की श्राद्ध की परंपरा...
महाभारत के अनुसार, सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश महर्षि निमि को महातपस्वी अत्रि मुनि ने दिया था। इस प्रकार पहले निमि ने श्राद्ध का आरंभ किया, उसके बाद अन्य महर्षि भी श्राद्ध करने लगे
धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए।
श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण (भोजन न पचना) रोग हो गया और इससे उन्हें कष्ट होने लगा।
तब वे ब्रह्माजी के पास गए और उनसे कहा कि- श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण रोग हो गया है, इससे हमें कष्ट हो रहा है, आप हमारा कल्याण कीजिए।
पितरों की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले- मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं, ये ही आपका कल्याण करेंगे।
अग्निदेव बोले- पितरों। अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण रोग दूर हो जाएगा।
यह सुनकर देवता व पितर प्रसन्न हुए। इसलिए श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है।
दुनिया में सबसे पहले श्राद्ध किसने किया था. . . ?
श्राद्ध के बारे में धर्म ग्रन्थों में अनेक बाते बताई गई हैं। दुनिया में सबसे पहले श्राद्ध किसने किया था। महाभारत काल में श्राद्ध के बारे में पता चलता है, जिसमें भीष्म पितामाह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई बाते बताई हैं। साथ ही यह भी बताया गया है कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और धीरे-धीरे जनमानस तक कैसे यह परंपरा शुरू हुई…
महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार, सबसे पहले महातप्सवी अत्रि ने महर्षि निमि को श्राद्ध के बारे में उपदेश दिया था। इसके बाद महर्षि निमि ने श्राद्ध करना शुरू कर दिया। महर्षि को देखकर अन्य श्रृषि मुनियों ने पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए।
जिसके बाद उन्हें भोजन को पचाने की समस्या सामने आने लगी।तब पितर और देवता सभी अपनी परेशानी को लेकर ब्रह्राजी के पास उपाय मांगने गए। तब ब्रह्राजी ने देवताओं और पितरों की बातें सुनकर कहा कि आपकी समस्या का समाधान अग्निदेव करेंगे।
देवताओं और पितरों की समस्या को सुनकर अग्नि देव ने कहा अब से श्राद्ध में हम सभी एक साथ भोजन ग्रहण करेंगे। मेरे साथ भोजन करने पर भोजन के पचाने की समस्या दूर हो जाएगी। इसके बाद से ही सबसे पहले श्राद्ध का भोजन अग्नि को फिर बाद में पितरों का दिया जाता है।
ग्रंथों के अनुसार, श्राद्ध में अग्नि देव के उपस्थित होने पर राक्षस वहां से दूर भाग जाते हैं। हवन करने के बाद सबसे पहले निमित्त पिंडदान करना चाहिए। सबसे पहले पिता को, उसके बाद दादा को फिर परदादा को तर्पण करना चाहिए।
श्राद्ध: के विषय में दस सवाल . . . !!
०१. श्राद्ध क्या है?
श्राद्ध प्रथा वैदिक काल के बाद शुरू हुई। उचित समय पर शास्त्रसम्मत विधि द्वारा पितरों के लिए श्रद्धा भाव से मंत्रों के साथ जो (दान-
दक्षिणा आदि) दिया जाए, वही श्राद्ध कहलाता है।
०२. श्राद्ध के मुख्य देवता कौन हैं?
वसु, रुद्र तथा आदित्य, ये श्राद्ध के देवता हैं।
०३. श्राद्ध किसका किया जाता है? और क्यों?
हर मनुष्य के तीन पूर्वज : पिता, दादा और परदादा क्रमश: वसु, रुद्र और
आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक्त वे ही सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि समझे जाते हैं। समझा जाता है, कि वे श्राद्ध कराने वालों के शरीर में प्रवेश करते हैं। और ठीक ढंग से किए श्राद्ध से तृप्त होकर वे अपने वंशधर के सपरिवार सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य का वरदान देते हैं। श्राद्ध के बाद उस दौरान उच्चरित मंत्रों तथा आहुतियों को वे सभी पितरों तक ले जाते हैं।
०४. श्राद्ध कितनी तरह के होते हैं?
नित्य, नैमित्तिक और काम्य। नित्य श्राद्ध, श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर, नैमित्तिक किसी विशेष पारिवारिक मौके (जैसे पुत्र जन्म) पर और काम्य विशेष मनौती के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।
०५. श्राद्ध कौन-कौन कर सकता है?
आमतौर पर पुत्र ही अपने पूर्वजों का श्राद्ध करते पाए जाते हैं। लेकिन शास्त्रनुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की संपत्ति विरासत में पाई है, उसका स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। यहाँ तक कि विद्या की विरासत से लाभान्वित होने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र श्राद्ध करते हैं। निस्संतान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता है। शेष कार्य (पिण्डदान, अग्निहोम) उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।
०६. श्राद्ध के लिए उचित और वजिर्त पदार्थ क्या हैं?
श्राद्ध के लिए उचित द्रव्य हैं : तिल, माष, चावल, जाै, जल, मूल (जड़युक्त सब्जी) और फल। तीन चीजें शुद्धि कारक हैं : पुत्री का पुत्र, तिल और नेपाली कम्बल! श्राद्ध करने में तीन बातें प्रशंसनीय हैं : सफाई, क्रोधहीनता और चैन (त्वरा (शीघ्रता) का न होना)। श्राद्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण बातें हैं : अपरान्ह का समय, कुशा, श्राद्धस्थली की स्वच्छता, उदारता से भोजनादि की व्यवस्था और अच्छे ब्राह्मणों की उपस्थिति।
कुछ अन्न और खाद्य पदार्थ जो श्राद्ध में नहीं लगते, इस प्रकार हैं : मसूर, राजमा, कोदों, चना, कपित्थ, अलसी (तीसी, सन, बासी भोजन और समुद्र जल से बना नमक। भैंस, हरिणी, ऊँटनी, भेड़ और एक खुर वाले पशुओं का दूध भी वजिर्त है। पर भैंस का घी वजिर्त नहीं। श्राद्ध में दूध, दही और घी पितरों के लिए विशेष तुष्टिकारक माने गए हैं।
०७. श्राद्ध में कुश तथा तिल का क्या महत्व है?
दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना गया है। माना यह भी जाता है कि कुश और तिल दोनों विष्णु के शरीर से निकले हैं। गरुड़ पुराण के अनुसार, तीनों देवता ब्रह्मा-विष्णु-महेश कुश में क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग में रहते हैं। कुश का अग्रभाग देवताओं का, मध्य मनुष्यों का और जड़ पितरों का माना जाता है। तिल पितरों को प्रिय और दुष्टात्माओं को दूर भगाने वाले माने जाते हैं। माना गया है कि बिना तिल बिखेरे श्राद्ध किया जाए, तो दुष्टात्माएँ हवि उठा ले जाती हैं।
०८. दरिद्र व्यक्ति श्राद्ध कम खर्चे में कैसे करे?
विष्णु पुराण के अनुसार दरिद्र लोग केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा, वह भी न हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को दे दें। या किसी गाय को दिनभर घास खिला दें। अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करें कि मैंने हाथ वायु में फैला दिए हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों।
०९. पिण्ड क्या हैं? उनका अर्थ क्या है?
श्राद्ध के दौरान पके हुए चावल दूध और तिल मिश्रित जो पिण्ड बनाते हैं, उसे सपिण्डीकरण कहते हैं। पिण्ड का अर्थ है शरीर। यह एक पारंपरिक विश्वास है, जिसे विज्ञान भी मानता है, कि हर पीढ़ी के भीतर मातृकुल तथा पितृकुल दोनों में पहले की पीढ़ियों के समन्वित गुणसूत्र मौजूद होते हैं। चावल के पिण्ड जो पिता, दादा और परदादा तथा पितामह के शरीरों का प्रतीक हैं, आपस में मिलाकर फिर अलग बाँटते हैं। यह प्रतीकात्मक अनुष्ठान जिन-जिन लोगों के गुणसूत्र (जीन्स) श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में हैं, उनकी तृप्ति के लिए होता है। इस पिण्ड को गाय-कौओं को देने से पहले पिण्डदान करने वाला सूँघता भी है। अपने यहां सूँघना यानी आधा भोजन करना माना गया है। इस तरह श्राद्ध करने वाला पिण्डदान के पहले अपने पितरों की उपस्थिति को खुद अपने भीतर भी ग्रहण करता है।
१०. इस पूरे अनुष्ठान का अर्थ क्या है?
अपने दिवंगत बुजुर्गो को हम दो तरह से याद करते हैं : स्थूल शरीर के रूप में और भावनात्मक रूप से! स्थूल शरीर तो मरने के बाद अग्नि या जलप्रवाह को भेंट कर देते हैं, इसलिए श्राद्ध करते समय हम पितरों की स्मृति उनके ‘भावना शरीर’ की पूजा करते हैं ताकि वे तृप्त हों, और हमें सपरिवार अपना स्नेहपूर्ण आशीर्वाद दें।
दुनिया में सबसे पहले इन्होंने किया था श्राद्ध, ऐसे शुरू हुई श्राद्ध की
हिंदू धर्म में पितृपक्ष यानी श्राद्ध पक्ष का बहुत महत्व है। इन दिनों पितरों को याद किया जाता है और उनसे आशीर्वाद लिया जाता है। बहुत ही कम लोगों को पता होगा कि दुनिया में सबसे पहले श्राद्ध किसने किया था। महाभारत काल में श्राद्ध के बारे में पता चलता है, जिसमें भीष्म पितामाह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई बाते बताई हैं। साथ ही यह भी बताया गया है कि श्राद्ध की परंपरा कैसे शुरू हुई और धीरे-धीरे जनमानस तक कैसे यह परंपरा शुरू हुई...
इन्होंने दिया था सबसे पहले उपदेश
महाभारत के अनुसार, सबसे पहले महातप्सवी अत्रि ने महर्षि निमि को श्राद्ध के बारे में उपदेश दिया था। इसके बाद महर्षि निमि ने श्राद्ध करना शुरू कर दिया। महर्षि को देखकर अन्य श्रृषि मुनियों ने पितरों को अन्न देने लगे। लगातार श्राद्ध का भोजन करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए।
इस रोग से हो गए परेशान
लगातार श्राद्ध को भोजन पाने से देवताओं पितरों को अजीर्ण रोग हो गया और इससे उन्हें परेशानी होने लगी। इस परेशानी से निजात पाने के लिए वे ब्रह्माजी के पास गए और अपने कष्ट के बारे में बताया। देवताओं और पितरों की बातें सुनकर उन्होंने बताया कि अग्निदेव आपका कल्याण करेंगे।
इसलिए है अग्निदेव का महत्व
अग्निदेव ने देवताओं और पितरों को कहा कि अब से श्राद्ध में हम सभी साथ में भोजन किया करेंगे। मेरे पास रहने से आपका अजीर्ण भी दूर हो जाएगा। यह सुनकर प्रसन्न हो गए। इसके बाद से ही सबसे पहले श्राद्ध का भोजन पहले अग्निदेव को दिया जाता है, उसके बाद ही देवताओं और पितरों को दिया जाता है।
ब्रह्मराक्षस भी रहते हैं दूर
शास्त्रों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि हवन में जो पितरों को निमित्त पिंडदान दिया जाता, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। इसलिए श्राद्ध में अग्निदेव को देखकर राक्षस भी वहां से चले जाते हैं। अग्नि हर चीज को पवित्र कर देती है। पवित्र खाना मिलने से देवता और पितर प्रसन्न हो जाते हैं।
इन मंत्रों का करें जप
पिंडदान सबसे पहले पिता को, उनके बाद दादा को और उनके बाद परदादा को देना चाहिए। शास्त्रों में यही श्राद्ध की विधि बताई गई है। जिसका भी पिंडदान आप दे रहे हैं, उस समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जप तथा सोमाय पितृमते स्वाहा का जप करें।
इन तीन पिंडों का है विधान
महाभारत के अनुसार, श्राद्ध में तीन पिंडों का विधान है। पहले पिंड जल में दें, दूसरा पिंड को पत्नी गुरुजनों को दें और तीसरा पिंड अग्नि को दें। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। पितृ पक्ष यानी श्राद्ध पक्ष हर साल भाद्रपद की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से लेकर अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक रहते हैं।